संगठन चलाने वालो के लिए बहुत सुंदर लेख

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नमस्कार,
इस लेख को जरूर आप पढ़े
आज मैं सुबह कुछ स्क्रिप्ट लिखने की सोच रहा था तभी अचानक मस्तिष्क में एक महान व्यक्तित्व की छवि उभरी जिनका नाम है। मान. श्री एकनाथ जी रानाडे , जो विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के संस्थापक थे। उनकी पुस्तक याद आई “सेवा ही साधना।”
इस पुस्तक को मैं सन 2010 में पढ़ा था।
सेवा ही साधना पुस्तक , संघटनात्मक कार्य और व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण और एक कार्यकर्ता समाज का कैसा होना चाहिए इस पर आधारित है।
इस पुस्तक को प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ना चाहिए चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग से हो और यदि व्यक्ति कोई समूह या संगठन का नेतृत्व कर रहा है तो उस व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिए ।

इस पुस्तक में एक चैप्टर है “सिर्फ कार्यक्रम ही नहीं कार्य भी” ।

वर्तमान स्थिति समाज की आज ऐसी हो गई है जो भी संगठन है या संगठनत्मक कार्य कर रहे हैं , उनके कार्यकर्ता ऐसे हो गए हैं कि वह कार्यक्रम कर लेते हैं तस्वीर निकलवा लेते हैं और खबरों में लगवा देते हैं ।
सिर्फ संगठन के कार्य, कार्यक्रम और फोटो खिंचवाने तक सीमित हो गए हैं । कुछ ही संगठन और कार्यकर्ता बचे है जो वास्तविकता में कार्य करते है।
संगठन के प्रमुख और कार्यकर्ता संगठन के उद्देश्य पर कार्य नहीं करते और संगठन की जो गाइडलाइन होती है , दिशा निर्देश होते हैं , समाज के हित में कार्य करने के , उससे कतराते हैं और सोशल मीडिया में प्रोपेगेंडा फैलाते रहते हैं प्रचार प्रसार करके।

यह देखकर दुख होता है कि आज के सामाजिक कार्यकर्ता इस स्थिति का पहुंच चुके हैं।
संगठन का नेतृत्व करने वाले दायित्ववान कार्यकर्ता अपनी मानसिक स्थिति या विचार करने की स्थिति को संभाल नहीं पाते या निर्णय नहीं ले पाते कि आखिर संगठन में कौन सा कार्यकरता सर्वोच्च कार्य कर रहा है या कौन सा कार्यकर्ता मक्खन मलाई लगा करके हमारे साथ आस्तीन का सांप बनता जा रहा है।

नेतृत्वकरता जो होता है, संगठन के जो दायित्ववान कार्यकर्ताओं की एक चमू होती है वह एक दूसरे का मुंह देखते हैं कि कोई हमसे बुरा ना मान जाए और गलत कार्यों का भी सपोर्ट या गलत व्यक्ति भी सपोर्ट कर देते हैं।
इस तरह में होता यह है कि जो वास्तविक में कार्यकर्ता होता है वह उस संगठन को छोड़कर चला जाता है या कि वह संगठन में कार्य नहीं करता क्योंकि उसे ना तो किसी संगठन में पद की लालसा होती है और ना ही उसे किसी स्वार्थ की ।
वह जहां पर गलत देखता है , वहां पर टोकता है और वह चाहता है कि संगठन आगे बढ़े ।
क्योंकि आप संगठन को कितने वर्षों से नेतृत्व करते हैं यह मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि आपकी और संगठन की इन वर्षों में ग्रोथ कितनी में हुई है , या राष्ट्रहित के लिए जो कार्य किया जा रहे हैं वास्तविकता में वह कार्य हो रहे हैं कि नहीं।

जो वास्तविक कार्यकर्ता होगा वह सिर्फ संगठन के उन्नति के बारे में सोचेगा और जब वह ईमानदारी से कार्य करेगा तो दुष्ट प्रवृत्ति के लोग , चाटुकार प्रवृत्ति के लोग जो मक्खन मलाई लगाते हैं , उन्हें ऐसे कार्यकर्ता नहीं भाते और वह अपना षड्यंत्र रचना शुरु कर देते है।
विषधर नाग की भांति आस्तीन में छुपकर बैठ जाता है।
और संगठनात्मक कार्यों में ज्यादा रुचि दिखाते हुए संगठन के दायित्ववान कार्यकर्ताओं के कानों में जाकर चुगलखोरी करेगा और स्वयं सभी कार्यकर्ताओं का प्रिय बनने की कोशिश करेगा और इस चाल को संगठन को नेतृत्व करने वाले लोग समझ नहीं पाते, क्योंकि वह पहले ही अपनी मानसिक विचारधारा को दुष्ट व्यक्ति की चुगलखोरी की विचारधारा में स्वयं को फंसा चुका होता है, तब यह होता है कि वह मक्खन मलाई लगाने वाला कार्यकर्ता जो बोलेगा वही सही लगेगा क्योंकि विनाश काले विपरीत बुद्धि हो जाती है।
यह इसीलिए भी होता है जब संगठन का प्रमुख स्वयं को , स्वयंभू अहंकार बस समझने लगता है।

और इसका दुष्परिणाम यह होता है कि संगठन में सही कार्यकर्ता जो होते हैं जो संगठन की उन्नति चाहते हैं धीरे-धीरे धीरे-धीरे अलग होते जाते हैं।
शीर्ष कार्यकर्ताओं को , जो नेतृत्व कर रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि जो कार्यकर्ता अलग हो रहा है वास्तविकता में उसका कारण क्या है। जो कार्यकर्ता आज बुराई करके हम सब का स्वयं प्रिय बन रहा है तो, हो सकता है कल शीर्ष में बैठे नेतृत्वकर्ताओं की भी बुराई करेगा। क्योंकि मक्खन मलाई ज्यादा दिन नहीं टिकते उसमें जल्दी ही कीड़े पड़ने लगते हैं।
……. विचार करें और अपने स्वयं के निर्णय को समझे, और अपने संगठन के अच्छे और सच्चे कार्यकर्ता को टूटने से बचा ले। …..!
संगठन अकेले और अहंकार में नहीं चलता, आपका आस्तित्व संगठन के सही कार्यकर्ताओं से है। ना कि चुगलखोर , और विषधरों को गले लगाने से, याद रखें। विष का प्रभाव आप पर भी पड़ सकता है। इसलिए सतर्क रहे।
लेखक – अंकित सेन।

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