संस्कारधानी जबलपुर अब “संघर्षधानी” बनती जा रही है। शहर में चलना अब आम बात नहीं, बल्कि एडवेंचर बन चुका है। जिन सड़कों पर कभी त्योहारों की रौनक रहती थी, आज वहाँ सिर्फ खोदाई, कीचड़, और गिरती हुई जनता दिखती है।
ग्वारीघाट रोड की खुदाई: जनता की बर्बादी
ग्वारीघाट रोड पर कदम रखिए तो ऐसा लगता है कि आप किसी “डिस्कवरी चैनल” की ट्रेकिंग यात्रा पर निकल पड़े हों। एक तरफ से पाइपलाइन के नाम पर सड़क को कई फीट खोद दिया गया है — दूसरी तरफ से जनता को जैसे कहा गया हो, “चलो देखो, कितना संतुलन बचा है तुम्हारे भीतर!”
बारिश के दो छींटे क्या गिरे, रोड पर बिछी मिट्टी अपने असली रंग में आ जाती है। फिसलन ऐसी कि स्कूटी हो या बुज़ुर्ग, कोई नहीं बचता। और जो गिरा, वो न सिर्फ सड़क से बल्कि उम्मीदों से भी गिर जाता है।
नेताजी गायब, प्रशासन मौन व्रत में
नेताजी जब वोट मांगने आते हैं तो जैसे हर घर में दीया लेकर घुस जाते हैं। लेकिन अब? अब उनके मोबाइल में “अभी व्यस्त हैं, कृपया बाद में प्रयास करें” की रिंगटोन सेट है। जनता चाहे सड़क पर गिरे या गड्ढे में समा जाए — नेताजी आराम से ट्विटर पर “विकास की तस्वीरें” डाल रहे हैं, जो शायद NASA से ली गई हों।
बाबूराव परांजपे वार्ड: सड़कें नहीं, गड्ढों का संग्रहालय
बाबूराव परांजपे वार्ड की मुख्य सड़क को देखिए — वहाँ सड़क कम और मौत के खड्डे ज़्यादा दिखते हैं। हर 5 मीटर पर ऐसा गड्ढा कि लगता है जैसे प्रशासन ने खुद ठेका दे दिया हो — “जो सबसे गहरा गड्ढा बनाएगा, उसे ठेका फिर से मिलेगा।”
सवाल वही पुराना: क्या कोई बलि चाहिए?
अब सवाल यही है — क्या प्रशासन और नेतागण तभी जागेंगे जब इन खड्डों में कोई ज़िंदगी समा जाएगी?
या फिर यही जवाब देंगे — “विकास प्रक्रिया में असुविधा तो होती है!”
तस्वीरें बोलती हैं, नेता नहीं
इन तस्वीरों को देखिए, जो गवाही दे रही हैं कि परिक रोड ही नहीं, पूरा जबलपुर आज सड़क नाम की चीज़ के लिए तरस रहा है। जनता हर तरफ सिर्फ एक बात कह रही है — “अब अगर वोट मांगने आओगे, तो पहले एक चक्कर इन सड़कों पर चलकर दिखाओ।”
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संस्कारधानी के नाम पर अब तो कुछ शर्म करिए साहब, जनता रोज़ गिर रही है — और आप सिर्फ मीटिंग में सिर हिला रहे हैं।
सवाल बड़ा है: क्या सड़कें कभी सामान्य होंगी? या जबलपुर को हर साल खोद कर ही याद किया जाएगा?”






















