(उजला दर्पण सीनियर रिपोर्टर रामगोपाल सिंह उईके)
झारखंड के उलीहातू गांव से उठी वो आवाज़, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी। उम्र बस 25 साल, लेकिन हौसला ऐसा कि जंगल-जंगल आदिवासियों में नई चेतना भर दी। नाम था — बिरसा मुंडा।
साल था 1875। छोटानागपुर की धरती पर एक बच्चा जन्मा, जो आगे चलकर धरती आबा कहलाया — यानी “धरती का पिता”। स्कूल गया, मिशनरियों के संपर्क में आया। धर्म बदला लेकिन जल्द समझ गया कि यह खेल सिर्फ़ जमीन और पहचान छीनने का है। सबकुछ छोड़ जंगलों का रुख किया। लेकिन अकेला नहीं गया — साथ में ले गया अपने समाज का आत्मगौरव।
ईसाई मिशनरियां तब आदिवासियों को ‘सभ्य’ बनाने के नाम पर उनकी जड़ें काट रही थीं। बिरसा ने इसका खुला विरोध किया। बोले — “अपना भगवान खुद बनाएंगे, अपनी जमीन भी खुद संभालेंगे।” बलि प्रथा, शराब, बोंगा पूजा जैसी कुरीतियों पर चोट की। कहा — “एक ईश्वर है — सिंग बोंगा।”
फिर जो हुआ, वो इतिहास बन गया।
“अबुआ राज एते जाना, महारानी राज तुंदु जाना।”
(अपना राज आएगा, रानी का राज खत्म होगा)
ये नारा जंगलों में गूंज उठा।
सरकार घबरा गई। बिरसा को ‘पागल’ कहा गया, ‘राजद्रोही’ ठहराया गया। 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया। मुकदमा चला, सजा हुई। लेकिन जब बिरसा जेल से बाहर आया, तब तक वह ‘भगवान’ बन चुके थे — आदिवासियों के लिए।
उनका सपना था — “मुंडा राज”। एक ऐसा शासन जिसमें न कोई जमींदार होगा, न कोई बिचौलिया, न ही धर्म बदलवाने वाली ताकतें। केवल अपनी मिट्टी, अपनी पहचान, अपना आत्मसम्मान।
लेकिन अंग्रेजों को ये मंजूर नहीं था। 9 जून 1900 को रांची जेल में उनका निधन हुआ। मौत कैसे हुई — आज तक साफ नहीं है। कुछ कहते हैं हैजा बीमारी से हुई, परन्तु सत्य यह है कि अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा के कुछ विश्वास पात्र लोगों को अपनी तरफ मिला लिया और उन्हें फिर ज़हर दिया गया।
जो भी हो, बिरसा मरकर भी नहीं मरा।
आज भी दिलों में राज करता है।
आज भी जब झारखंड में कोई बच्चा जन्म लेता है, तो घर में कहा जाता है — “धरती आबा वापस आया है।”
अंत में एक बात साफ है:
बिरसा मुंडा कोई इतिहास की किताब में बंद नाम नहीं है। वो आज भी ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हर आदमी के भीतर ज़िंदा हैं। उनकी आवाज़ जंगलों से शहरों तक गूंजती है।
उनका जीवन चीख-चीखकर कहता है —
“पहचान छीनने वालों से लड़ो, चाहे कितनी भी बड़ी ताकत हो।”













